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Wednesday, 1 October 2025

'इधर रहमान उधर बेईमान' के साथ 'मैं बोरिशाइल्ला' व 'किस्सागोई 1971'

'गोमती पुस्तक मेला' लखनऊ, 20 सितम्बर, 2025 से 28 सितम्बर, 2025 तक में 'नीलम जासूस' के स्टाल से अन्य किताबों के साथ जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा की 'इधर रहमान उधर बेईमान' भी ली जो बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम पर आधारित उपन्यास है. पढ़ तो पहले भी चुका हूँ, जब प्रकाशित हुई थी, 1971 या 72 में, फिर पढ़ने की इच्छा थी मगर उपलब्ध नहीं थी. जब 'नीलम जासूस कार्यालय' ने पल्प फिक्शन/लोकप्रिय के दिग्गज लेखकों, यथा जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, चंदर आदि की कृतियों का पुर्नप्रकाशन शुरू किया तो अन्य कई किताबों के साथ इसे भी लिया.

                      इस किताब का महत्व इसलिए भी है कि जब बांग्ला देश मुक्ति संग्राम जनता की सेना 'मुक्ति वाहिनी' लड़ रही थी, पाकिस्तान के अमानुषिक दमन के बावजूद 'मुक्ति सैनिक' उनको टक्कर दे रहे थे तो तुरन्त ही, युद्ध के दौरान ही, 1971 के आसपास, ओम प्रकाश शर्मा ने यह उपन्यास लिखा और प्रकाशित होते ही यह छा गया. तत्कालीन घटनाक्रम पर तुरत फुरत यह पहला उपन्यास था. ब्रेकिंग न्यूज जैसा शब्द तब चलन में न आया था, इसी शब्दावली में कहें तो यह 'ब्रेकिंग उपन्यास' था, बेस्ट सेलर था, ब्लॉक बस्टर था. इसका क्रेज वे याद कर सकते हैं जो उस दौर के पढ़ाकू हैं. हर पढ़ाकू के हाथ में यह उपन्यास था, न केवल 'पल्प/लुगदी' साहित्य के पाठकों के हाथ में बल्कि गम्भीर साहित्य के पाठकों और लेखकों तक के हाथ में भी. विख्यात लेखक, अमृत लाल नागर ने भी इसे पढ़ा और इसकी प्रशंसा की (उनका पत्र संलग्न )वे जासूसी उपन्यासों के भी शौक़ीन थे.

                उस दौर में और उसके बाद रपट तो खूब आयीं, इस घटनाक्रम पर कथेतर भी खूब आए पर उपन्यास, वह भी तुरन्त, पहला ही था. बाद में भी मुझे याद नहीं पड़ता कि कोई उपन्यास आया हो. आए होंगे तो मेरी जानकारी में नहीं. जन जन तक पहुँचने वाला यह पहला और लोकप्रिय उपन्यास था, उन्होंने ऐसे ही नहीं अपने नाम के साथ 'जनप्रिय लेखक' लगाया था, वे जनप्रिय थे.

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उपन्यास वैसा प्रमाणिक नहीं है, पल्प होने से उनके स्थायी पात्रों - जगत, जयन्त और राजेश - के साथ है. पाकिस्तानी सेना के दमन चक्र और अमानुषिकता व मुक्ति सेना की बहादुरी व कई मोर्चों पर जीत की बातें सही होते हुए भी तिथियों व वास्तविक घटनाओं से पुष्ट नहीं है (बाद का एक साहित्यिक/गम्भीर उपन्यास, महुआ माजी का 'मैं बोरिशाइल्ला' प्रमाणिक विवरणों से पुष्ट है, उसकी चर्चा भी इसी पोस्ट में आगे कर रहा हूँ )शायद मुक्ति संग्राम में भारत की भूमिका, पाकिस्तानी सेना का आत्मसमर्पण और बांग्ला देश के उदय के पूर्व ही 'इधर रहमान उधर बेईमान' लिखा गया क्योंकि उपन्यास में इनका ज़िक्र नहीं है.

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उपन्यास जगत, जयन्त, राजेश सीरीज है (पुराने पाठक इन पात्रो से परिचित हैं) पर है यह जगत सीरीज ही, राजेश व जयन्त तो जैसे फिलर के तौर पर हैं. इसमें जगत ने राजेश जैसा चरित्र भी निभाया है. पाकिस्तानी सेना का दमन चल रहा है और मुक्ति सैनिकों का सशक्त प्रतिरोध भी. पाक मुक्ति सैनिकों के बीच पैठ के लिए अपना जासूस याकूब भेजता है जो प्रमोद घोष नाम से उनमें पैठ बना लेता है. एक जासूस शीरी नाम से कलकत्ता के धनी वर्ग में पैठ बना लेती है. अंर्तराष्ट्रीय ठग जगत भी मुक्ति सैनिकों की ओर से लड़ने के लिए डॉक्टर के छद्म रूप में, फिर असली पहचान के साथ उनमें पैठ बनाता है. सब पाक सेना के कुछ मंसूबे ध्वस्त करते हैं, सैकड़ों औरतों को कैद से मुक्त कराते हैं. लाखों लोग भारत में शरण पाते हैं. जगत याकूब और शीरी को पहचान कर उनका ह्रदय परिवर्तन करके बांग्ला देश के पक्ष में कर लेता है, यहाँ उसने राजेश जैसा चरित्र दिखाया.

              इसी के साथ एक लघु उपन्यास 'मेजर अली रज़ा की डायरी' भी है जो पाक सेना के थे व उनके अमानुषिक दमन को डायरी के माध्यम से उजागर करता है.

               जब यह उपन्यास पढ़ा था तब बारह-तेरह साल का रहा होऊंगा फिर भी इसकी याद और फिर पढ़ने की इच्छा बनी रही जो अब पूरी हुई.

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इसके बाद इस घटनाक्रम, भारत का मुक्ति संग्राम में सक्रिय और निर्णायक हस्तक्षेप, पाक सेना का समर्पण और बांग्ला देश के उदय/विश्व द्वारा एक स्वतन्त्र देश के रूप में मान्यता पर कथेतर तो पढ़े किन्तु उतना ही सशक्त, प्रमाणिक और रोचक उपन्यास महुआ माजी का 'मैं बोरिशाइल्ला' पढ़ा. महुआ माजी वर्तमान में, 2024 से, झारखण्ड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की राज्य सभा सदस्य भी हैं.












                 जो कथेतर में रुचि नहीं रखते किन्तु प्रमाणिक तथ्यों सहित विस्तार से पूरा घटनाक्रम जानने के इच्छुक हैं, वे यह उपन्यास ज़रूर पढ़ें. उपन्यास वर्ष 2006 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है और इसमें 1948 से1971तक के कालखण्ड का चित्रण है. यह उनका पहला उपन्यास है जो पुरस्कृत भी हुआ और विवादित भी.

           इस उपन्यास पर 2024 में श्रवण कुमार गोस्वामी (हिन्दी और नागपुरी भाषा के प्रमुख लेखक, रांची विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर, वर्ष 2020 में 82 वर्ष की आयु में निधन ) ने महुआ माजी पर आरोप लगाया कि वे इस उपन्यास की लेखक नहीं हैं बल्कि उनके परिवार के किसी सदस्य ने आधी अधूरी पाण्डुलिपि उन्हें दी जिसे महुआ माजी ने पूरा करके अपने नाम से प्रकाशित करा लिया. इस पर पक्ष विपक्ष से कई लेखक-लेखिकाओं ने लिखा और साहित्यिक पत्रिका 'पाखी' ने 'श्रवण कुमार-महुआ माजी प्रकरण' शीर्षक से सभी पत्रों को छाप कर इसे खूब हवा दी. बहरहाल यह श्रवण कुमार गोस्वामी का वैयक्तिक भावावेश का प्रलाप ही सिद्ध हुआ.

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बांग्लादेश के उदय और इसमें भारत की प्रमुख भूमिका के 50 वर्ष पूरे होने पर वर्ष 2021 में मशहूर दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी और प्रज्ञा शर्मा ने कैण्ट लखनऊ में सेना के 'पुनीत दत्त ऑडिटोरियम, गोरखा सेन्टर' में 'किस्सागोई 1971' नाम से प्रभावी दास्तान प्रस्तुत की. उस दास्तान के कुछ चित्र देखें.

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'इधर रहमान उधर बेईमान' के बहाने बांग्लादेश उदय के घटनाक्रम, एक और उपन्यास और उसके साथ विवाद और दास्तानगोई को भी घसीट लाया.  किसी पोस्ट को विस्तार देने का कुटेव मुझमे है, मेरे साथ इसे भी सहन करें किन्तु आशा है, इस विस्तार को पोस्ट से संगति रखने वाला पायेंगे और ऊबे न होंगे.

 

Monday, 29 September 2025

'तालीवाला' - चित्रा मुद्गल की कहानी और उस पर कुछ !


एक लड़की है मध्यवर्गीय परिवार की. जैसी आर्थिक स्थिति, वैसी परिवार की सोच. तीन लड़कियां और एक लड़का, कुछ भी लीक से हट कर सोचो भी तो माँ कहती कि जो करना है, अपने घर जाकर करना ! अपने घर यानि ससुराल. बाक़ी दो अपने मन का करने के लिए शादी करके अपने घर चली गयीं, भाई भी शादी करके अलग रहने लगा, रह गयी यह. शायद इसलिए भी कि रंग रूप, शक़्ल साधारण थी, अनाकर्षक की सीमा तक. होते-होते 35 की हो गयी तो रहे सहे रिश्ते आने भी बन्द हो गए. वह एक ऑफिस में काम करती थी. अब उसका सपना एक घर खरीदना और किसी लड़की को गोद लेकर शेष जीवन बिता देना भर था.
एक दिन माँ ने उसे एक रिश्ते के बारे में बताया, प्रस्तावित वर, देवेन्द्र, उनको देखते सम्पन्न था, बस लंगड़ापन था. कहा भी, 'लंगड़ापन ऐसा कोई बड़ा ऐब नहीं है, दो-दो दुकानें उसकी अपनी हैं. अपने छोटे से हीनत्व से पीड़ित वह तुझे हमेशा सिर आँखों पर रखेगा.' वह फफक उठी, रिश्ता आया गया हो गया.
जीवन यूँ ही चल रहा था कि ऑफिस में सिन्हा सरनेमधारी एक व्यक्ति का आगमन हुआ, उसने स्वयं परिचय का हाथ बढ़ाया. फिर तो परिचय प्रगाढ़ होता गया. हर तरफ स्र उपेक्षित वह खिल उठी, बात शादी तक पहुँच गयी. माता-पिता भी सहमत थे. सगाई वगैरह के आयोजन को उसने सादगी व फिजूलखर्ची के नाम पर मना कर दिया. लड़की ने अपनी बचत से एक फ्लैट बुक करा दिया.
वह ख़ुशियों के झूले में झूल रही थी कि एक दिन सिन्हा की एक और से बातचीत सुन ली. दूसरा कह रहा था, 'जिसके साथ कोई चाय पीना पसन्द नहीं करता, उससे शादी करना क्यों स्वीकार कर लिया ? एकदम तालीवाला तो है .' उत्तर में सिन्हा ने जो जो कहा उसका सार यही कि तालीवाला ही सही. उसने शादी करना उसकी नौकरी और मकान के लिए स्वीकार किया. वह मकान ले रही है और हर महीने की तनख़्वाह आती रहेगी.
वह सुन कर बिल्कुल टूट गयी. नौकरी से इस्तीफा दिया, रिश्ता तोड़ कर घर आयी. कुछ बात हुई, वह फफक पड़ी, आवेश में कहा, 'मैं देवेन्द्र से शादी के लिए तैयार हूँ, तुम भानू बेन से कह दो.'
माँ अवाक सी उसकी पीठ को सहलाती रही. कैसे कहें, 'देवेन्द्र की सगाई हो चुकी है, शादी आठ-दस दिन बाद है ... '
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कल, 28 सितम्बर, 2025 को चित्रा मुद्गल की यह कहानी 'हिन्दुस्तान' के रविवासरीय अंक 'फुरसत' में पढ़ी. 'हिन्दुस्तान' हर रविवार इस अंक में 'कादम्बिनी' के पुराने अंकों से कुछ सामग्री प्रकाशित करता है. यह कहानी वर्ष 2002 के अंक में प्रकाशित हुई थी, यानि कहानी 23 वर्ष पुरानी है.
कहानी स्तब्ध कर गयी, इसलिए भी कि लगभग एक चौथाई सदी बाद भी इस मोर्चे पर कुछ खास बदलाव नहीं हुआ जबकि जब कहानी लिखी गयी, तब व पहले तो स्थिति और विकट रही होगी. कहानी में तो लड़की नौकरी कर रही है, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर तो है. वास्तव में तब भी लड़कियों का नौकरी करना कोई अजूबा नहीं रह गया था. उससे पहले की लड़कियों की सोचें जब वे आत्मनिर्भर भी नहीं थीं तब दबे रंग वाली/अनाकर्षक लड़कियों को शादी के मोर्चे पर कितनी दुश्वारी होती होगी, हो गयी तो किसी कमी वाले या दुहाजू वर से और उसमें भी जीवन भर सुनना/दबना पड़ता होगा.
आज भी स्थिति बहुत बदली नहीं है. इस तरह की कमी वाली लड़कियों को आज भी दिक्कते हैं, शादी के मोर्चे पर भी और समाज में भी. अब भी उनसे उनकी कमाई, वेतन के रूप में नियमित आने वाली रकम के लिए शादी होती है. अपवाद भी होंगे ही पर वे अपवाद ही हैं.
ऐसी ही दिक्कतें अकेली, तलाकशुदा या अलग रह रही लड़की के लिए हैं. उनके लिए शब्द है 'परित्यक्ता' यानि जिसे पति ने त्याग दिया हो, भले ही आत्माभिमानी, दृढ़ और आत्मनिर्भर लड़की ने पति को त्यागा हो पर कहलाती वह परित्यक्ता है. लोग उसका फायदा उठाना ही चाहते हैं.
स्थिति से परिचित सब हैं पर साहित्य में यह बात उठने से लड़कियों को एक आवाज़ मिलती है, सम्बल मिलता है कि कोई नितान्त अपरिचित भी उनके लिए आवाज़ उठा रहा है, उन्हें व समाज को सच्चाई दिखा कर सचेत कर रहा है. यही इस व इस जैसी कहानी की सार्थकता है. लोकरंजन, मॉरल, 'जैसे उनके दिन फिरे' जैसा भले ऐसे यथार्थवादी साहित्य में न हो पर यह है वह साहित्य जो समाज का दर्पण है. स्वागत है ऐसे साहित्य का और साहित्यकारों का, प्रकाशकों का, पसन्द करने वाले पाठकों का.
कुछ खटकने वाली बात भी लगी इस कहानी में. एक ओर तो लड़की इतनी मज़बूत किन्तु दूसरी ओर ऐसी भावुक और कमज़ोर कि ज़माना देखे हुए होने पर भी, अपने रंग-रूप से परिचित होते हुए भी सिन्हा जैसे के सामने पिघल गयी. चलो स्वाभाविक सा था, इस तरह के सम्बन्ध से दुत्कारी जाती रह कर प्रेम व प्रस्ताव के पीछे का धूर्त चेहरा न देख सकी मगर ऐसा क्या कि वास्तविकता सामने आने/दिल टूटने पर आवेश में उसी से शादी को तैयार हो गयी जिसे उसकी शारीरिक कमी के चलते ठुकरा चुकी थी.
दूसरे जैसे लोग शारीरिक कमी / अनाकर्षक होने के चलते उसे ठुकरा रहे थे, उसने भी शारीरिक कमी के चलते अन्यथा योग्य लड़के को ठुकराया. ऐसे तो वह भी उसी समाज/मानसिकता की प्रतिनिधि बन गयी जिससे वह पीड़ित थी. दूसरे वह क्या सोचती थी, अब तक क्या वह लड़का अविवाहित बैठा होगा जो उसने उससे शादी की हामी भरी, वो भी सोच विचार कर नहीं, आवेश में. क्या ऐसे लड़के से शादी दिल टूटने पर ही की जाती है. फिर वह समाज व उससे अलग कहाँ हुई जो उससे उसकी कमाई के स्वार्थ में शारीरिक कमी के बावजूद शादी कर रहा रहा था! फिर तो दोनों उसी समाज के प्रतिनिधि हुए, स्वार्थी दोनों हुए, एक कमाई के स्वार्थ में तो दूसरा दिल टूटने के मरहम के रूप में उस पर 'उपकार' कर रहा था.
चित्रा मुद्गल जी स्थापित व वरिष्ठ साहित्यकार हैं, फिर भी लड़की के चरित्र चित्रण की कमज़ोरी लगी मुझे, यह साहित्य के संदेश को कमज़ोर करती है भले ही मानवीय स्वभाव का यथार्थ चित्रण हो. शायद इसीलिए मार्मिक होते हुए भी मुझे लड़की के प्रति उतनी सहानुभूति और सिन्हा के प्रति तीव्र आक्रोश नहीं उत्पन्न हुआ.

 

Tuesday, 23 September 2025

चित्रकूट में राम-भरत भेंट व राम की खड़ाऊँ !

 

चित्रकूट में राम-भरत भेंट व राम की खड़ाऊँ !












कबि न होउँ नहि चतुर कहावउँ । मति अनुरूप राम गुन गावउँ ॥

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कबि न होउँ नहि बचन प्रबीनू । सकल कला  सब बिद्या  हीनू ॥

-        बालकाण्ड.

जब बाबा तुलसी ने मानस की शुरुआत में ही ऐसी आत्मस्वीकृति दे दी तो मैं अकिञ्चन  उनके पासङ्ग का भी पासङ्ग नहीं हूँ फिर भी राम कथा के जो प्रसङ्ग हैं, स्वल्पमति अनुसार ही उनके बारे में कहता हूँ. यह मान कर ही रामकथा पर मेरी बात सुनें.

पिछली पोस्ट में एक भाई ने जिज्ञासा की, ‘ भरत ने राम का खड़ाऊँ क्यों लिया ?’ मेरी मति की जो सीमा है, उसके अनुसार इसका शमन करने की चेष्टा कर रहा हूँ.

यह तो सभी जानते हैं कि राम को वापस अयोध्या चलकर राज्य संभालने की उनकी प्रार्थना व अन्य वैकल्पिक प्रस्ताव राम ने पितु वचन के पालन का हवाला देकर अस्वीकार कर दिया तो भरत राजसिंहासन पर उनके प्रतिनिधि रूप में आरूढ़ करने के लिए उनकी खड़ाऊँ लेकर, उसे सर पर धर कर लाये.

उनके इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व आईए यह देख लें कि क्या भरत ने उनकी खड़ाऊँ ली / राम ने अपनी खड़ाऊँ दी ? क्या वे जो खड़ाऊँ पहन कर वन गये थे, जो पहने हुए थे, भरत ने उनकी वही खड़ाऊँ मांगी और प्रेमवश उन्होंने पहनी हुई वही खड़ाऊँ उतार कर दे दी !

राम कथा के दो प्रमुख और मान्य स्रोत हैं एक श्रीमद्वावाल्मीकि रामायण और श्रीरामचरित मानस. मानस रामयण पर ही आधारित है, अनेक प्रसङ्ग पूरी तरह रामायण के अनुसार हैं, बस वहाँ भाषा संस्कृत है, यहाँ अवधी. देशकाल और लोकरंजन को ध्यान में रख कर मानस में कुछ प्रसङ्गों में विचलन है, कुछ जोड़े गए हैं तो कुछ छोड़ दिए हैं. मानस जन जन में अधिक पैठी हुई है अतः लोग मानस में किए वर्णन से अधिक परिचित हैं.                 

खड़ाऊँ प्रसङ्ग में मानस में जो वर्णित है, कि भरत ने राम से उनकी खड़ाऊँ मांगी और राम ने वही दे दी

भरत सील गुर सचिव समाजू । सकुच सनेह बिबस रघुराजू ॥

 प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्हीं । सादर भरत सीस धरि लीन्हीं ॥

चरनपीठ करुनानिधान के । जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के ॥

रामायण में है कि भरत ने राम की पहनी हुई खड़ाऊँ नहीं उतरवाई थी बल्कि वे अयोध्या से ही स्वर्णमण्डित खड़ाऊँ साथ लेकर गये थे. राम जी ने इस प्रस्ताव की स्वीकृति स्वरूप उन पर पैर रखा तो वे खड़ाऊँ राम की खड़ाऊँ के रूप में स्वीकार हो गयीं, उन्हीं को लेकर वे अयोध्या लौटे और वे ही खड़ाऊँ राम की खड़ाऊँ के रूप में सिंहासनारूढ़ हुईं. उन्होंने राम की पहनी हुई खड़ाऊँ नहीं उतरवाईं.

श्रीमद्वाल्मीकि रामायण में है कि भरत अयोध्या से ही स्वर्णमण्डित खड़ाऊँ साथ लेकर आये थे, उनकी प्रार्थना पर राम ने अपने चरण उन पर रखे और वही खड़ाऊँ वे लेकर लौटे न कि वनवास पर जाने के समय पहनी राम की खड़ाऊँ.

पुष्टिस्वरूप रामायण के अयोध्याकाण्ड से यह श्लोक देखें

अधिरोहार्य  पादाभ्यां   पादुके  हेमभूषिते ।

ऐते हि सर्वलोकस्य योगक्षेम्यं विधास्यतः ॥

(आर्य ! ये दो स्वर्णभूषित पादुकाएँ आपके चरणों में अर्पित हैं, आप इन पर अपने चरण रखें. ये ही सम्पूर्ण जगत् के योगक्षेम का निर्वाह करेंगी.)

स पादुके ते भरतः स्वलंकृते

         महोज्ज्वले सम्परिगृह्य धर्मवित् ।

प्रदक्षिणं चैव चकार राघवं

        चकार       चैवोत्तमनागमूर्धनि ॥

( धर्मज्ञ भरत ने भलीभाँति अलंकृत ही हुई उन उज्ज्वल चरण पादुकाओं को लेकर श्रीरामचन्द्र जी की परिक्रमा की तथा उन पादुकाओं को राजा की सवारी में आने वाले सर्वश्रेष्ठ गजराज के मस्तक पर स्थापित किया.)

अब प्रश्न यह कि भरत अयोध्या से खड़ाऊँ साथ लेकर क्यों चले ? क्या वशिष्ठ, माताओं व अन्य गुरुजनों कि भी यही सम्मति थी ? तो इसका उत्तर है हाँ ! सबकी सम्मति थी. भरत अच्छि तरह जानते थे कि राम दृढ़ प्रतिज्ञ हैं, वे कदापि पितु वचन के प्रतिकूल वापस लौटना, राज्य करना स्वीकार न करेंगे. तब ! राम ने अस्वीकार किया, जैसा कि विश्लेषण था, तो विकल्प रूप में पहले से खड़ाऊँ लेकर चले अकि रज सिंहासन रिक्त न रहे. यहाँ केवल तत्संबम्बन्धित श्लोक व उनके चित्र चस्पा हैं, अधिक जानकारी / पुष्टि के लिए वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड का यह प्रस्ङ्ग देखें. 

मानस में भरत के अयोध्या से खड़ाऊँ साथ लेकर जाने का कोई संकेत/वर्णन नहीं है, खड़ाऊँ का विचार विकल्प रूप में वहीं बना तो वे उनकी पहनी हुई खड़ाऊँ लेकर लौटे.

किन्तु यहाँ भी कुछ विचलन / विरोधाभास है. सम्भवतः पूर्ण रूप से वनवासी वेश  का पालन करने के लिए राम नंगे पांव ही वन में गये थे और वैसे ही रहे.

तापस बेष बिशेष उदासी । चौदह बरिस रामु बनबासी ॥

तभी तो उनके कोमल तलवों का स्पर्श पाकर पृथ्वी संकोच से भर उठती है

परसत मृदुल चरन अरुनारे । सकुचति महि जिमि ह्रदय हमारे ॥

यदि खड़ाऊँ या पदत्राण/ पनही पहने होते तो पृथ्वी को तलुओं का स्पर्श न मिलता, मार्ग के स्त्री-पुरुषों ने भी उन्हें नंगे पांव/ बिना जूते-चप्पल के चलते देखा

ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना । रचे बादि बिधि बाहन नाना ॥

एक ओर तो यह संकेत कि राम नंगे पांव ही थे तो दूसरी ओर यह कि वे भरत को पांवरी देना चाह्ते हैं और अन्ततः दे भी दीं.

प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्हीं । सादर भरत सीस धरि लीन्हीं ॥

सम्भवतः तुलसीदास जी ने इस स्थान पर लोकरंजन और भाव के वशीभूत होकर खड़ाऊँ को राम की बता दिया अन्यथा वे पहले स्थापित कर चुके हैं कि राम जी नंगे पांव थे. ऐसा विचलन बाबा तुलसी ने अन्य प्रसङ्ग में ( लक्ष्मण रेखा के सन्दर्भ में ) भी किया है.

तुलसी भक्त और कवि शिरोमणि हैं, उनकी महिमा वे ही जानें. हम उनके प्रयोजन पर कुछ कहने के लिए अत्यल्पमति हैं.

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अब कुछ विचार इस पर कि खड़ाऊँ मांगने / देने की क्या आवश्यकता थी.

प्राचीन काल से अब तक यह परम्परा है कि राज सिंहासन कभी रिक्त नहीं छोड़ा जा सकता. राज्य का अधिकारी किसी कारणवश नहीं है अथवा न रहे तो भी उसके स्थान पर कोई प्रतिनिधि कार्यवाहक राजा के रूप में पद ग्रहण करता है. वर्तमान में सिंहासन जैसी कोई चीज़ नहीं होती तो भी पद पर तुरन्त ही किसी न किसी की नियुक्ति की जाती है अथवा कोई कार्यवाहक अस्थायी रूप से पद भार ग्रहण करता है. ऐसा इसलिए है कि राज्य व  प्रशासन में, चाहे राजतन्त्र हो अथवा गणतन्त्र/लोकतन्त्र अथवा कोई अन्य शासन तन्त्र,  व्यवस्था है कि नीतिगत निर्णय राजा अथवा प्रमुख से पूछ कर, उसकी स्वीकृति से ही लिए जाते हैं. सिंहासन अथवा पद खाली होने पर आन्तरिक व वाह्य शत्रु सक्रिय हो जाते हैं तब निर्णय राजा/ प्रमुख का ही वैध होता है. इसलिए राज सिंहासन व राजा पद रिक्त नहीं रह सकता.

                                   अयोध्या की स्थिति और भरत के संकल्प के अनुसार वे तो गद्दी पर बैठते नहीं, जब वे नहीं बैठते तो शत्रुघ्न, माताओं में से किसी के अथवा अन्य किसी के बैठने का प्रश्न ही नहीं. प्रतिनिधि के रूप में, राम के प्रतिनिधि के रूप में, भरत और उनके प्रतिनिधि के रूप में शत्रुघन राज काज तो संभाल रहे थे किन्तु सिंहासन पर कौन आसीन हो ? तो राजा द्वारा संस्तुत किसी वस्तु को प्रतीक रूप में बैठाना आवश्यक था ताकि सिंहासन रिक्त न रहे. खड़ाऊँ तो राम द्वारा संस्तुत थीं, उनकी सम्मति थी, उन्होंने प्रदान की थीं तो उनका ही सिंहासनारूढ़ होना सर्वथा स्वीकार्य था. प्रश्न यह भी हो सकता है कि निर्जीव खड़ाऊँ किस काम की ? तो जैसे पत्थर या धातु की देव प्रतिमा में प्राण  प्रतिष्ठा की जाती है तो वह प्रतिमा देव / भगवान हो जाती है, वैसे ही खड़ाऊँ भी प्रतिष्ठित होकर राम रूप हो गयी. जैसे राजपूतों में, वर के किसी कारणवश उपस्थित न रहने पर कटार से विवाह के दृष्टान्त हैं, वैसे ही यह भी राम का स्थानापन्न है. प्रतीकों का आज भी महत्व है, अनुष्ठान में वे स्वीकार्य और पूज्य हैं. हर माङ्गलिक कार्य में गौरी गणेश के स्थान पर काठ अथवा गोबर का सिन्दौरा व गोबर के गणेश मान्य होते हैं वैसे ही खड़ाऊँ भी.

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राम कथा अन्य ग्रंथों में

रामायन सत कोटि अपाराहम व अधिकांश लोग राम कथा को मानस के माध्यम से जानते हैं, कुछ लोग वाल्मीकि रामायण से भी जानते हैं किन्तु रामायण केवल यह ही दो नहीं हैं. तीन सौ से अधिक रामायण होने की बात विदित है. दक्षिण की रामायण व अन्य प्रदेशों की रामायण, विदेश की रामायण में कथा भेद है. राम वही, घटनाक्रम वही किन्तु कुछ भेद के साथ. उत्तर भारत में राम का चरित्र प्रधान है, हनुमान का उल्लेख ऋष्यमूक पर्वत क्षेत्र में राम से भेंट के बाद से है किंतु अन्य रामायणों में रावण व उसके बन्धु बान्धवों का चरित्र है, हनुमान का विशद चरित्र है जो मानस के माध्यम से उन्हें जानने वाले हम लोगों के लिए विस्मयकारी, अविश्वसनीय और कदाचित अस्वीकार्य हो. उदार दृष्टि से अध्ययन करने पर यह चरित्र खुलते हैं व उन्हें जाना जा सकता है.

                                      इस पोस्ट में हम केवल चरण पादुका प्रसङ्ग तक ही रहेंगे. उन मूल ग्रन्थों का अध्ययन मैंने नहीं किया किन्तु उन पर आधारित कुछ स्तरीय उपन्यास पढ़े हैं और कुछ आधुनिक उपन्यास भी जो राम कथा को नवीन सन्दर्भ में प्रस्तुत करते हैं  व्यंग्य उपन्यास भी हैं.

                                        ऐसा ही एक विचारप्रधान उपन्यास है भगवान सिंह का अपने अपने राम उसमें भी भरत और चरण पादुका प्रसङ्ग का आधार वही है जो वाल्मीकि रामायण में है, बस उपन्यास होने के कारण विस्तार दिया गया है. उसके अनुसार भी भरत अयोध्या से ही स्वर्णमण्डित अलंकृत चरण पादुकाएं तैयार करा कर इसी आशय से साथ ले गए थे कि राम वापसी को मानेंगे तो है नहीं तो इस स्थिति में वे उन पादुकाओं पर चरण रख दें,वे पादुकाएं उनकी मानी जाएंगी और उन्हें ही अयोध्या के राजसिहासन पर प्रतीक / प्रतिनिधि रूप में प्रतिष्ठित किया जाएगा. ऐसा ही हुआ. तो भरत ने न राम से उनकी पहनी हुई पादुकाएं मांगी, न उन्होंने दीं. वे पादुकाएं भरत अयोध्या से साथ ले गए थे. ( उपन्यास के उन पृष्ठों  के चित्र पेस्ट हैं.

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एक और महत्वपूर्ण उपन्यास है मदनमोहन शर्मा शाहीका लंकेश्वर  उसमें भी यह प्रसङ्ग तलाश किया किन्तु यह रावण का आख्यान अधिक है, इसमें वह प्रसङ्ग न मिला फिर भी इस उपन्यास की चर्चा इसलिए कर रहा हूँ कि इसमें आप हनुमान का  विशद वर्णन देखेंगे जिससे आपको झटका भी लग सकता है. खोल कर इसलिए नहीं बता रहा हूँ कि जिज्ञासुजन उपन्यास पढ़ें. इसमें यह भी है कि वनवास की योजना विचार विमर्श करके बनायी गयी, राम की इसमें सहमति थी. यह उपन्यास लेखक की कल्पना नहीं बल्कि अन्य रामायण पर आधारित है

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बस एक और उपन्यास की चर्चा और इस आलेख को विराम. एक व्यंग्य उपन्यास है वयंग्य के सशक्त लेखक ज्ञान चतुर्वेदी का मरीचिकाइसमें राम के वन गमन के पस्चात अयोध्या की राजनीति और रावण को परास्त करने के बाद अयोध्या वापसी के पूर्वाभास को आधार बनाया है. सावधान ! इसमें राम कथा / धार्मिक भावना न देखें अन्यथा आपकी भावना आहत हो सकती है. यह व्यंग्य उपन्यास है. इसमें वन गमन के बाद अयोध्या की राज्य व्यवस्था को पादुकाराजकी संज्ञा प्रदान की गयी है. भरत तो राज काज से उदासीन थे, पादुका की आड़ में धूर्त मंत्री, सेनापति आदि अपना स्वार्थ सिद्ध करते हुए अव्यवस्था फैलाए थे. सामान्य प्रजा त्रस्त होकर राम की वापसी की प्रतीक्षा कर रही थी कि राम आयेंगे, राज्य संभालेंगे, इन दुष्टों को दण्डित करेंगे व चहुँ ओर पुनः आनन्द होगा, रामराज्य होगा. जहाँ एक ओर प्रजा में ख़ुशी और आशा थी तो दूसरी ओर उन तत्वों में भय का संचार हो रहा था. भक्ति भाव किनारे रख दें, उदार होकर पढ़ें, यह व्यंग्य उपन्यास है पौराणिक नहीं इस भाव से पढ़ें तो यह पठनीय उपन्यास है.

सन्दर्भित तीनों उपन्यास पढ़े जाने चाहिएं.

तो राम कथा उतनी ही नहीं जितनी हम जानते हैं / पचा पाते हैं.

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता

Wednesday, 17 September 2025

शत्रुघ्न, कि भरतानुज - नन्दिग्राम में लक्ष्मण-शत्रुघ्न भेंट


 

 पुनि  प्रभु  हरषि सत्रुहन  भेंटे  ह्रदयँ लगाइ ।

   लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ ॥

               भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे । दुसह बिरह संभव दुख मेटे ॥… “

-          उत्तरकाण्ड/ ५/१

श्रीरामचरित मानस के उत्तरकाण्ड का प्रसङ्ग है. राम, लक्ष्मण, सीता मुख्य-मुख्य वानर-भालु वीरों व विभीषण के साथ अयोध्या वापस आ गये हैं, वे नंदीग्राम जाकर भरत-शत्रुघ्न से भेंट करते हैं. गोस्वामी जी कहते हैं कि फिर, अर्थात भरत जी से मिल चुकने के बाद प्रभु श्रीराम ने  हर्षित होकर शत्रुघ्न को ह्रदय से लगा कर भेंट की और लक्ष्मण भरत दोनों भाई बहुत प्रेम से मिले.

                                                           फिर उसके बाद लक्ष्मण ने भरत के भाई अर्थात शत्रुघ्न से मिल कर दुसह विरह से जो सुख हुआ था, उसे मिटाया. मिल कर विरह का दुख दूर हो गया.

यहाँ एक बात की ओर ध्यान गया. शत्रुघ्न से राम जी भी मिले और लक्ष्मण जी भी.  जब प्रभु राम उनसे मिले तो गोस्वामी जी ने उनका नाम बताया, कहा ‘हरषि सत्रुहन भेंटे’ किंतु जब लक्ष्मण जी उनसे मिले तो नाम नहीं लिया. यह नहीं कहा कि लक्ष्मण शत्रुघ्न से मिले बल्कि यह कहा कि भरत के भाई से मिले, ‘भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे’ ऐसा क्यों ! शत्रुघ्न को ‘भरतानुज’ क्यों कहा ! लक्ष्मण और शत्रुघ्न तो सगे भाई थे, दोनों सुमित्रानन्दन थे. भरत कैकेयी के और राम कौशल्या के थे. गोस्वामी जी नाम भी ले सकते थे कि लक्ष्मण शत्रुघ्न से मिले, जैसा सबके भेंट करते में कहा, अपने सगे भाई, ‘निज भ्राता’ से मिले भी कह सकते थे,  उन्हें भरतानुज क्यों कहा ?

एक शब्द के, नाम के कई पर्यायवाची होते हैं, अनेक विशेषण होते हैं, अनेक सर्वनाम हो सकते हैं. उपयुक्त / विशेष मन्तव्य को व्यक्त करने वाले शब्द का प्रयोग करना कवि की विशेषता है, उस शब्द के, उस स्थान पर प्रयोग के मन्तव्य को बताता है. तुलसी भक्त ही नहीं, सिद्ध कवि थे. यहाँ शत्रुघ्न को भरतानुज कहना उनकी एक विशेषता, चारीत्रिक गुण को बताता है. वे प्रारम्भ से ही अपने सगे भाई लक्ष्मण की अपेक्षा भरत के साथ रहे, जैसे कि लक्ष्मण राम के साथ रहे. नाम युग्म का उच्चारण करते समय राम-लक्ष्मण, भरत-शत्रुघ्न कहा जाता है, राम, भरत, लक्ष्मण-शत्रुघ्न नहीं. राम के साथ लक्ष्मण विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए गये तो बाद में भरत के साथ शत्रुघ्न ननिहाल गए. लक्ष्मण का लगाव राम से अधिक था तो शत्रुघ्न का भरत से. वनवास के बाद जब भरत-शत्रुघ्न सेना और तीनों माताओं सहित राम को वापस लौटाने के लिए वन गए और राम ने नानाविधि समझा कर वापस लौटने से मना कर दिया तो वे राम जी की चरणपपादुकाएँ लेकर लौट आए. उन्हें सिंहासन पर स्थापित करके राजा बनाया और स्वयं नन्दिगग्राम में मुनिवेश और वैसी ही जीवनशैली में कुटी में रहने लगे जैसे राम रहते थे. शत्रुघ्न अयोध्या में रह कर भरत जी की सम्माति से राज काज का निर्वाह करते रहे. वे लक्ष्मण से अधिक भरत के भाई थे, उन्होंने भरत के कहे अनुसार सब किया, सदा उनकी परछाई बन कर रहे तो  इसीलिए तुलसी बाबा ने इस अवसर पर भरत से उनका साम्य, अनुराग बताने के लिए भरतानुज कहा, शत्रुघ्न कहते तो यह प्रीति न प्रकट होती.

( कुछ जगह यह भ्रान्ति है, लोग भी मानते हैं कि भरत के साथ शत्रुघ्न भी नन्दिग्राम में उन्हीं की भांति मुनिवेश में रहे, वे भी वनवासीवत जीवन निर्वाह कर रहे थे किन्तु राम कथा के दो प्रमुख स्रोत, श्रीरामचरित मानस व श्रीमद्वाल्मीकि रामायण, दोनों में ही ऐसा कोई उल्लेख नहीं है बल्कि स्पष्ट है कि नन्दिग्राम में भरत ही रहे. उपयुक्त प्रसङ्गों पर यह स्पष्ट संकेत है कि शत्रुघ्न अयोध्या में रहे, राज काज देखते रहे.)

मुझे तो शत्रुघ्न के बजाय भरतानुज कहने के पीछे यही मन्तव्य लगता है, आपको क्या लगता है. सम्भव है तुलसीदास जी का यह अथवा कोई विशेष प्रयोजन न रहा हो नाम के बजाय भरतानुज कहने के पीछे किन्तु उन्होंने शब्द चयन सटीक किया है, जहाँ जो पर्यायवाची है, उसका विशेष आशय है चाहे वह काव्य में चमत्कार ही क्यों न रहा हो.

  कहिए, आपकी क्या राय है !

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रामकथा को अब तक कई साहित्यकारों ने अपने ढंग, विश्लेषण और नवीन सन्दर्भॉं के साथ प्रस्तुत किया. इस कथा में भी राजमहलों के आन्तरिक षड़यंत्र और राजनीति आरोपित करने वाले एक उपन्यासकार ने लक्ष्मण को राम के साथ और शत्रुघ्न को भरत के साथ लगा देने को अपना व अपने पुत्रों का भविष्य सुरक्षित करने की सुमित्रा की चाल बताया है. दशरथ की पटरानी कौशल्या थीं तो उनके और बड़े पुत्र होने के नाते राम को राजगद्दी मिलने की पूर्ण सम्भावना थी किन्तु दशरथ छोटी रानी कैकेयी पर अधिक आसक्त थे तो उनके पुत्र भरत को भी राज्य मिल सकता था. ऐसे में सुमित्रा और उनके पुत्रों का कोई भविष्य न था, वे उपेक्षित / सामन्तवत रहते तो बचपन से ही एक को राम के साथ लगा दिया और एक को भरत के साथ. अब ऊँट जिस करवट भी बैठता, इनका भविष्य / राजमहल में रुतबा बना रहता.

                                    है तो यह रामकथा में विचलन, जन-जन में प्रचलित कथा और चरित्रों को तोड़ मरोड़ कर मनमाने/ अपने निष्कर्षो के साथ प्रस्तुत करना किन्तु यह एक प्रकार से विकृति भी है. अपनी धारणा आरोपित करने को इसी पृष्ठभूमि पर अन्य नयी कथाएँ कही जा सकती हैं, नए उपन्यास लिखे जा सकते हैं. हज़ारों वर्षों से चली आ रही महागाथा, जिस पर लाखों लोगों को अगाध श्रद्धा है, उसमें अपनी सोच घुसेड़ने की क्या ज़रूरत ? यह नवाचार नहीं, उन्हें विकृत करना ही कहा जाएगा ! एक खतरा यह भी है कि युवा और किशोर पीढ़ी में अधिकांश ने प्राचीन ग्रन्थ पढ़े नहीं, उनके घरवालों/ अध्यापकों ने भी नहीं बताया. ऐसे में वह पीढ़ी अंग्रेजी में लिखे और बाद में हिन्दी व अन्य भाषाओं में अनूदित किताबों को पढ़ेगी. उन पर बनी फ़िल्में व सीरियल देखेगी, वह इसी प्रकार से रामकथा जानेगी. सम्भव है पचास साल बाद वह इन्हीं को प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में देखे और इसी को सच मानें. और भी बहुत विचलन / विकृति पैदा की गयी है इन नये ‘ग्रन्थों’ में, तो पहले / मूल क्या है , पहले क्या था, इन पौराणिक / पूज्य / आराध्य पात्रों का कैसा चरित्र सदियों से जनमानस में पैठा है – यह हमे-आपको ही बताना है.

‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’ 

‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’

Friday, 29 August 2025

शादी-बारातों में नाऊ

सहालग चल रही है, लगभग रोज ही किसी न किसी शादी में जाना होता है. अब जाते हैं तो खाली खाना खाने और यथायोग्य देने ही थोड़े न जाते हैं, बारात आने के पूर्वकाल से लेकर अपनी वापसी तक बहुत कुछ देखते भी हैं. शादियों का पुराना दौर, अनेक व्यवस्थाएँ, रीति-रिवाज़ याद आते हैं जो अब की शादियों में नहीं दिखते.

पहले, करीब चालीस साल पहले तक, लड़की वालों की तरफ से जनवासे में नाऊ, धोबी और मोची की व्यवस्था ज़रूर होती थी. वैसे तो नाऊ दोनों तरफ से होता है मगर वह नाऊ 'नाऊ ठाकुर' होता है. वह ऐपनवारी/तेलवारा ले जाने व अन्य नेगचार के लिए होता है, बहुत पहले नाऊ दूर दराज से लेकर निकट के गाँवों में शादी का न्योता लेकर भी जाते थे. वे लोटा-डोर लेकर, खाने का कुछ सामान साथ लेकर प्रायः पैदल ही जाते थे. पुराना समय था, बाग़-बगीचे, अमराई आदि खूब थे, वे दोपहर में आराम के लिए व रात हो जाने पर उन्हीं में ठहर जाते थे. कुंआ भी होता था तो स्नान, पानी पीना कुंवे पर होता था. प्रायः कुंआ पर सार्वजनिक प्रयोग के लिए बाल्टी रखी रहती थी, रस्सी होती थी तो नहाना, धोती छांटना हो जाता था. सत्तू, चबेना वगैरह खा लिया, कुछ सामान हुआ तो रसोई कर ली. लकड़ी बाग़ से बीन लाये, ईंटों का चूल्हा बनाया और दो-चार टिक्कड़ सेंक लिए, हो गया खाना ! खाने के बाद तान कर सो रहे. सुबह या शाम फिर चल पड़े. जब जजमान ( जिसे निमन्त्रण देना हो ) के घर पहुँचे तो खाने ठहरने की व्यवस्था जजमान करता था या कच्चा सामान दे देता था, जगह बता देता था, नाऊ ठाकुर ख़ुद रसोई करते थे. दूसरे दिन विदाई मिलती थी, जवाबी संदेशा हो तो वह भी मिलता था, फिर चल पड़े अगले जजमान के यहाँ. ज़ाहिर है, इस तरह निमन्त्रण देने में नहीं महीनों तो पखवारा तो लग ही जाता था. एक ही जजमान को निमन्त्रण देना हो तो भी तीन दिन लग सकते थे. नाऊ बिचौलिया भी होता था. नाऊ की पत्नी नाऊन कही जाती थी. शादी का वह भी एक मुख्य पात्र होती थी. रस्मों में उसका काम और नेग होता था, अब भी होता है. वह बुलौआ देने, न्योता बांटने ( शादी के बाद लड़की के मायके से आये पकवान घर-घर बांटने ) भी जाती थी. इसके लिए भी उसे घरों से नेग मिलता था. अब डाक से कार्ड बांटने, ख़ुद जाकर देने और व्हाट्स ऐप पर स्कैन करके कार्ड व  इस हेतु बनवाया वीडियो भेज देने से नाऊ के यह परम्परागत कार्य लुप्त हो गये हैं, वैसे नाऊ भी अब नहीं होते, कोई भेजे भी तो अब वे भी अब बाईक से तय की जाने वाली दूरी तक बाईक से ही जायेंगे.   


कलाकार, नाटककार, भोजपुरी के सेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर जात से भी नाऊ थे, गाँव में नाऊगिरी ( दाढ़ी बनाना, बाल काटना आदि ) भी करते थे और इस तरह की निमंत्रण देने वाली नाऊगिरी भी. उन पर आधारित  संजीव के उपन्यास, 'सूत्रधार' में इसका वर्णन है.
    
 ऐसा नाऊ नाऊगिरी के के अन्य कार्य, जैसे दाढ़ी बनाना, बाल काटना आदि, उस समय नहीं करता और जनवासे में भी तैनात नही होता. जनवासे में एक अलग नाऊ होता था जो इच्छुक बरातियों की दाढ़ी बनाता था, बाल वगैरह न वह काटता था, न ही कोई बाराती कटाते थे. ऐसे ही धोबी केवल प्रेस करता था और मोची केवल पॉलिश करता था. बारात चाहे बाहर से आ रही हो या लोकल, ये तीन ज़रूर जनवासे में तैनात किए जाते थे.

बाहर से आने वाली बारातों के लिए तो यह निहायत ज़रूरी था, लोकल के लिए भी ज़रूरी था. बाराती सुबह या दोपहर में चले होते थे, दाढ़ी तब तक फिर से बनाने लायक हो चुकी होती थी. कुछ बाराती ऐसे होते थे कि कल तो बारात आना ही है तो आज क्यों बनवाएँ/बनाएँ, वहीं बनवाएँगे. ऐसे ही बारात के समय पहनने वाले कपड़े अटैची/बैग में मुस जाते थे तो उन्हें वहीं प्रेस कराना होता, जूते/चप्पल धूलमण्डित हो चुके होते, उन्हें भी वहीं पॉलिश कराना होता. एक बार तो ऐसे जड़ियल बाराती मिले जिन्होंने सगर्व बताया कि जूता तो हम बस बरातन मा पालिस कराइत है ! अब कौन दूसरे शहर/गाँव जाकर कपड़ा-जूता उठाए नौव्वा, धोबी और मोची ढूँढे और उससे बड़ी बात कि क्यों ढूँढे - बरात जा रहे हैं कि बात ! नशा-पत्ती वगैरह आत्मनिर्भर लोग ख़ुद लेकर आते थे, बहुधा तो वर का बाप/बड़ा भाई या वर करता था. यह व्यवस्था आज की अधिकांश बारातों में होती है, वैसे हमने एक बारात में बारात जनवासे में उतरने और जलपान के बीच लड़की वालों को देखा है जो बारातियों को भांग के लिए पूछ रहे थे और बहुतेरे ग्रहण कर रहे थे. बहुत नहीं, बस चालीस साल पुरानी बात है यह, हम बाराती थे, सहकर्मी की शादी थी, हमसे भी पूछा गया पर भांग में हमारी रुचि न थी और बाक़ी इस मामले में हम 'आत्मनिर्भर' थे. यह सब 'स्वागत बारात' का पूर्वाङ्ग होता था.

लोकल बारात में भी जनवासे में नाऊ, धोबी, मोची की व्यवस्था होती थी, काहे से कि बहुत से बाराती (निकट सम्बन्धी व मित्र) रात रुकते व दुल्हन विदा करा कर ही आते थे तो दो सेट कपड़े लाते थे, कुछ रात में लौटने वाले भी बारातयोग्य कपड़े वहीं बदलते हैं, दाढ़ी वहीं/फिर से बनवाते, जूता चमकवाते हैं - कारण वही, बाराती हैं कि बात !

अब जनवासे में बारात के लिए ये सब नहीं होते. लोग तैयार होकर ही आते हैं. अधिकांश लोग अपने साधन से आते हैं तो कपड़े खराब भी नहीं होते या कार में ही हैंगर मे सूट टांग कर लाते हैं. लड़कों को चेन्ज करने में न उतना समय लगता है, न कोई खास आड़ चाहिए, जब लघुशंका आदि से कहीं भी निवृत्त हो लेते हैं तो कपड़े बदलने में कैसी आड़. लड़कियां/औरतें तो तैयार होकर ही आती हैं, अगर वहाँ तैयार होने की सोचें तो बारात आधी रात के बाद या भोर पहर ही उठ पाये.
नाऊ की ज़रूरत तो अब होती नहीं, काहे से कि पहले क्लीन शेव्ड/पतली मूंछों वाले, चाकलेटी चेहरे वाले, झेंपे-झेंपे से दूल्हे परम्परा में थे , अब कई सालों से दढ़ियल दूल्हे परम्परा में हैं. सौ में लगभग नब्बे दूल्हे (लगभग इसलिए कि गाँव के व बाल विवाह वाले दूल्हे छोड़ दिए ) ऐसे ही होते हैं, दाढ़ी अलबत्ता करीने से सेट होती है. बाबा छाप दाढ़ी में अभी समय है.
दूल्हा ही नहीं, लगभग सारे ही पुरुष बाराती दाढ़ी रखाए होते हैं. बच्चों को ज़रूरत नहीं और जो दो-चार बड़ी उमर के या रूढ़िवादी बाराती क्लीन शेव्ड या दाढ़ी बनाये होते हैं तो उनके लिए क्या ये झण्झट पालना.

वैसे एक पोस्ट पर दढ़ियल दूल्हों के दाढ़ी बनवा कर आने की शर्त रखने की बात की गयी तो एक ने जनवासे में इस काम के लिए नाऊ तैनात करने का सुझाव दिया, वो बहुमत से खारिज़ हो गया पर जनवासे में नाऊ रखा जा सकता है, बल्कि अब और उपयोगी होगा - दाढ़ी बनाने नहीं बल्कि सेट करने के लिए ! वैसे तो सब सुबह या दोपहर या शाम को सेट करा कर ही आये होते हैं पर सुबह या दोपहर को सेट करा कर आने वालों को ज़रूरत हो सकती है -

... देखों, मेन दाढ़ी के अलावा बाक़ी पर ज़ीरो नम्बर चला दो, चिन के आस-पास एक नम्बर, दोनों साईड और नीचे ब्लेड लगेगा, गुद्दी पर भी ब्लेड लगा दो. कान के ऊपर वैसे तो अभी सही है, मगर तीन या चार नम्बर चला दो और जो इधर-उधर हो रहे हैं, उन्हें कैंची से ठीक कर दो. बाक़ी और कुछ मत करना, दोपहर को सेट तो करा ही चुके हैं ...

तो देखा, पड़ सकती है ना जनवासे में नाऊ की ज़रूरत ! दढ़ियल दूल्हे और बारातियों के बावजूद ! 

Monday, 4 August 2025

“देवी सरस्वती की कैद, स्मृतिलोप - पारलौकिक कथाएँ"

 

“देवी सरस्वती की कैद, स्मृतिलोप - पारलौकिक कथाएँ"

'बिभूतिभूषण की पारलौकिक कथाएँ' पढ़ी. जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, यह बांग्ला के प्रसिद्ध लेखक, बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की पारलौकिक कथाओं का संकलन है. यह खण्ड 1 है अर्थात उन्होंने ऐसी और भी कथाएँ लिखीं हैं जो आगे दूसरे खण्ड में प्रकाशित जी जाएंगी. बांग्ला से हिन्दी में अनुवाद जयदीप शेखर ने किया है, किताब 'साहित्य विमर्श प्रकाशन' से प्रकाशित है.
                 पारलौकिक से आशय इस लोक, पृथ्वी लोक, से इतर लोक से है. यह देवलोक भी हो सकता है और पृथ्वी और देवलोक से अलग कोई लोक भी जहाँ वे लोग रहते हैं जिनकी मृत्यु हो चुकी है पर वे मुक्त नहीं हुए या पुर्नजन्म नहीं हुआ, आत्मा रूप में हैं. मृतकात्मा के अतिरिक्त वे भी हो सकते हैं जो कभी मनुष्य थे ही नहीं, प्रारम्भ से ही अन्य योनि में थे. 
पारलौकिक क्या है ? इसे एक कहानी की शुरुआत में बताया गया है –

“जीवन में बहुत कुछ ऐसा घटता है, जिसका कोई तर्कसंगत कारण नहीं खोजा जा सकता - उन्हें हम लोग पारलौकिक नाम देते हैं. कह नहीं सकता, लेकिन खोजने पर शायद उनके पीछे सहज एवं सम्पूर्ण स्वाभाविक कारण का पता चले. क्या पता, मनुष्य के विचार, बुद्धि एवं अभिज्ञता के दायरे के बाहर का कोई कारण मौजूद हो - इसे लेकर मैं तर्क नहीं करूँगा, सिर्फ इतना कहूँगा कि ऐसा कोई कारण यदि हो, तो हम जैसे सामान्य मनुष्यों द्वारा उनका पता लगा पाना चूँकि सम्भव नहीं है, इसलिए ही उन्हें पारलौकिक कहा जाता है."
   

   - इसी किताब की कहानी 'रंकिणी देवी का खड्ग' (बांग्ला शीर्षकःरंकिणी देबी'र खड़ग) से.  

यह अंश पारलौकिक को बहुत हद तक व्यक्त कर देता है. यह अंश प्रकारान्तर से इस धारणा की पुष्टि करता है कि पारलौकिक जगत है, उस जगत के में प्राणी भी हैं जो आकार-प्रकार में लौकिक जगत के प्राणियों से भिन्न किन्तु अत्याधिक शक्तिसम्पन्न होने हैं. वे रहस्यमय, डरावने, मानव की अपेक्षा दूने-तिगुने और विचित्र/भयंकर, कभी अशरीरी - मात्र आवाज़ या गतिविधि से उपस्थिति का आभास कराने वाले और अनिष्ट करने वाले, जान तक ले लेने वाले हो सकते हैं त्क कुछ सामान्य और परिचित व्यक्तियों के रूप में और आसन्न घटनाओं की सूचना देने वाले, संकट के प्रति सचेत करने वाले हो सकते हैं. इन्हें आत्मा, भूत-प्रेत, जिन्न, पिशाच आदि का नाम दिया जाता है. बहुधा इनका प्रार्दुभाव रात्रि में और श्मशान, निर्जन स्थान, निर्जन घर/खण्डहर, वृक्ष आदि पर होता है. ये दिख भी सकते हैं और नहीं भी. कभी ये अपने क्षेत्र में अतिक्रमण करने वालों पर प्रतिक्रिया करते हैं तो कभी तान्त्रिक अनुष्ठान आदि द्वारा आमन्त्रित किए जाने पर आते हैं. अशरीरी होते हुए भी खून पीते हो सकते हैं ( 03 अगस्त, 2025 को) 'हिन्दुस्तान' में मनोहर शर्मा 'माया' की एक आपबीती 'लौट आई थी माया' पढ़ी जिसमें लेखक की पूर्वपत्नी माया उसकी वर्तमान पत्नी के शरीर पर कब्ज़ा किए है और बताती है कि वह प्रेत योनि में है और लता, उसकी वर्तमान पत्नी के शरीर में रह कर उसका रक्त पीती है. कुछ माह और इसके साथ रही तो यह मर जायेगी, अतः उसे प्रेत योनि से मुक्त करने की व्यवस्था करें.)

लख चौरासी योनियों में यह सब अशरीरी योनियां भी आती हैं. मज़े की बात यह कि भले ही ऐसा साहित्य संस्मरण/आपबीती न होकर काल्पनिक कथा साहित्य हो, बताते/स्थापित करते सभी यह हैं कि यह सब सत्य घटनाएं हैं जो उनके या किसी के साथ वास्तव में घटी हैं, बस रोचकता के लिए कल्पना और संवादों की छौंक लगा दी है. प्रकान्तर से यह स्थापित करना हुआ कि भले अधिकांश लोग इन पर विश्वास न करें, विज्ञान प्रमाणित न कर सके, कार्य-कारण सम्बन्ध न हो, सब है और होता है, जब तुम पर पड़ेगी तब जानोगे !
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इस संकलन में ऐसी ही कहानियाँ हैं. लेखक स्वयं इन सबमें विश्वास करते थे. उन्हें कई पारलौकिक अनुभव भी हुए. उन्होंने अपने पुत्र को अपनी आयु देकर बचाया, आयुदान के छह माह बाद उनकी मृत्यु हो गयी. इसके अतिरिक्त उन्होंने जाग्रत किन्तु मोहाविष्टावस्था में अपनी मृत देह भी देखी. इस किताब में तारानाथ तान्त्रिक की दो कहानियां वस्तुतः उनके स्वसुर, षौड़सीकान्त चट्टोपाध्याय की कहानी है जो तन्त्र साधना करते थे. तन्त्र साधना द्वारा उन्होंने अलौकिक योनियों के लोगों को प्रकट किया. कहा जा सकता है कि अन्य कहानियाँ भी गल्प होते हुए वास्तविक अनुभवों पर आधारित हैं. वे तो मानते ही थे, पाठक भी मान सकते हैं कि यह सब होता है/हुआ है.

कहानियों में तरह तरह के पारलौकिक योनियों के लोग, भूत आदि हैं, घटनाएँ हैं. 'विरजा होम में बाधा' का पात्र वैद्य है,वह औषधि के साथ हवन व तन्त्र से भी उपचार करता है. एक गाँव में एक लड़के को विरजा होम के द्वारा स्वस्थ करने जाता है. एक रहस्यमयी महिला (आत्मा) उसे उपचार व हवन करने को मना करती है कि लड़का बचेगा नहीं. वह तब भी हवन को उद्धत होता है तो दोमंज़िले मकान के आकार जितनी भयंकर आकृति उसे आगाह करती है. लड़का मर जाता है.
एक अन्य कहानी 'काशी कविराज की कहानी' में भी वैद्य एक जमींदार के पुत्र का उपचार करने जाते हैं तो जमींदार की पहली पत्नी का प्रेत (वह सौम्य रूप में आती है ) उन्हें निर्देश देता है, बात करता है.
'भूत बसेरा' में एक मकान भुतहा है जिसमें भूत लीला होती है तो 'भुतहा पलंग' में एक चीनी पलंग भूतग्रस्त है जो खरीदार को मरणासन्न कर देता है. 'रंकिणी देवी का खड्ग' में एक भयंकर देवी का खड्ग महामारी से पूर्व रक्तरंजित हो जाता है.
कई कहानियाँ हैं. रोमाञ्च तो है पर हॉरर नहीं, जुगुप्सा नहीं या कह सकते हैं मुझे महसूस न हुआ.
इस प्रकार की कहानियों में रुचि है तो यह किताब पढ़ें.
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मुझे आपत्ति है इस किताब की एक कहानी 'मेघ मल्हार' पर.  क्यों है ? यह आगे स्पष्ट किया है. आप देखें कि क्या यह कहानी वास्तव में आपत्तिजनक है या मुझे ही ऐसा लगा.

           
                    पुस्तक परिचय बहुत हो गया, अब आते हैं पोस्ट के मुख्य बिन्दु/ शीर्षक 'देवी सरस्वती की कैद, स्मृतिलोप' पर ! इन पारलौकिक शक्तियों पर विश्वास करें न करें, भगवान और देवी-देवताओं पर तो विश्व भर में विश्वास किया जाता है, यहाँ तक कि नास्तिकों में से भी कुछ 'संदेहभक्त' होते हैं,'अगर भगवान होता है तो !' तब आस्तिक और आस्थावान धर्मप्राणों का कहना ही क्या ! भगवान व देवी देवता अनादि, अनन्त, मन-बुद्धि-इन्द्रियों से परे, सर्वशक्तिमान, घट-घट व्यापी, सबके मन की जानने वाले, देश काल से परे, 'नेति-नेति' (इतना ही नहीं, और भी है !) होते हैं. मानवों से तो वे परे और महाशक्तिमान होते हैं. मानव उनका कुछ (अनिष्ट) कर नहीं सकता. भगवान भगत के वश में होते हैं पर ऐसा होते हुए भी हर क्षण स्वतन्त्र और सजग, समर्थ होते हैं, जब चाहे मायाजाल समेट सकते हैं.
        ऐसे में इस संग्रह की 'स्टार' कहानी 'मेघ-मल्हार' (बांग्ला शीर्षकःमेघमल्लार) इस पर प्रश्न खड़े करती है, अविश्वसनीय और हास्यास्पद है. कहानी गल्प/काल्पनिक हो सकती है जो इस जॉनर में मनोरंजन के लिए लिखी गयी या फिर रोचकता के लिए कल्पना-संवाद की छौंक लगा कर प्रस्तुत की वास्तविक घटना - पर दोनों ही स्थितियों में अनुचित, अविश्वसनीय, हास्यास्पद और भगवान / देवी-देवताओं की मानसिक व शारीरिक शक्ति को मानव से बहुत कम होने के रूप में प्रस्तुत करती है. गल्प हो तो यह ईशनिंदा के समान है वैसे प्रकारान्तर से इसे भी सत्याधारित कहने की चेष्टा है.
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कहानी सार कुछ यह है कि दो तान्त्रिक देवी सरस्वती को जाग्रत/शरीरी रूप में प्रकट करने का अनुष्ठान करते हैं. देवी प्रकट होती हैं. वे अतीव सुन्दरी, अलौकिक/दिव्य आभा से युक्त, मोहक देहयष्टि वाली तरुणी हैं. उनमें से एक साधक,सूरदास ने तो माँ सरस्वती से देश के संगीतज्ञों के मध्य श्रेष्ठ स्थान प्राप्त होने का वर मांगा, देवी ने तथास्तु कहा किन्तु दूसरा साधक, गुणाढ्य, उनके रूप पर लुब्ध होकर उन्हें ही मांग बैठा.
यह मानने वाली बात तो थी नहीं अतः देवी इसे असम्भव बता कर अंर्तध्यान हो गयीं.
              वह तान्त्रिक निराश न हुआ बल्कि प्रयास करता रहा. कालान्तर में उसने एक तरुण गायक, प्रद्युम्न, को फांसा जिसे राग मेघ मल्हार सिद्ध था और साधन की अन्य पात्रता के अनुपालन में अविवाहित भी था. साधना की गयी जो सफल रही. देवी उसी रूप के साथ प्रकट हुईं और  स्मृतिलोप होकर बंध गयीं, अपना देवत्व खो/भूल कर उसके वश में हो गयीं. इसका प्रद्युम्न को पता न चला. साधना के उपरान्त लौटते हुए उसने वन में देवी को छटपटाते देखा जैसे वे किसी के चंगुल से निकलने का प्रयास कर रही हों पर निकल न पा रही हों. साधना सफल होने पर देवी के प्रकट होने और इस दृश्य का सम्बन्ध वह जोड़ न सका, इसे दृष्टिभ्रम माना.



         देवी अपना देवत्व भूल कर एक वन में गुणाढ्य के साथ रहने लगीं. साधारण निष्ठावान गृहिणी की भांति वे खाना पकातीं, नीचे सरोवर से जल लातीं, अन्य गृहकार्य करतीं. रूपमती वे अब भी वैसी ही थीं पर देवी जैसी अलौकिक व देदीप्यमान न थीं. एक दिन प्रद्युम्न ने उन्हें देखा, सम्पर्क किया, उनके द्वारा बनाया भोजन किया, गुणाढ्य वहाँ न था. प्रद्युम्न के मन में ग्लानि थी कि देवी की यह अधोगति उसके कारण हुई है. एक दिन गुणाढ्य भी आया, वह भी पश्चाताप से दग्ध था. उसने बताया कि वह देवी को मुक्त कर सकता है, मन्त्रपूत जल उन पर छिड़कना होगा किन्तु जल छिड़कने वाला पत्थर का हो जाएगा, फिर कभी जीवित न हो सकेगा. उसे जीवन से मोह है इसलिए वह ऐसा नहीं कर सकता. प्रद्युम्न इसके लिए तैयार हो जाता है, मन्त्रपूत जल छिड़कता है, देवी मुक्त होकर पुनः अपने स्वरूप में आ जाती हैं, प्रद्युम्न पत्थर की मूर्ति में बदल जाता है. देवी सरस्वती पुनः देवत्व पाकर भी बिना अपने उद्धारकर्ता, प्रद्युम्न को जीवित किए और उन्हें इस स्थिति में बन्धक किए गुणाढ्य को दण्डित किए अपने लोक चली जाती हैं.
               प्रद्युम्न के गुरु और उसकी प्रेमिका के भी प्रसङ्ग हैं, उन्हें कथा सार में नहीं दे रहा हूँ.
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कथा/सत्य घटना आपने जानी. बतायें मेरा क्षोभ और आपत्ति उचित है या वितण्डा ? क्या यह विश्वसनीय और कथा हो तो देवी का ऐसा चरित्र चित्रण उनका अपमान नहीं है. क्या इस रोमाञ्चक कथा ने आपका मनोरंजन किया ? क्या संदेश मिलता है और क्या कथाकार का साहित्यबोध ठीक है ?
                      यहां यह ध्यातव्य है कि गुणाढ्य उन्हें माता, पुत्री, बहन या मित्र के रूप में तो मांग नहीं रहा था, वह उन्हें भोग्या पत्नी या प्रेयसी के रूप में चाहता था.
प्रथम बार प्रकट होने पर देवी ने उसकी उसे इस धृष्टता के लिए कठोर या हल्का दण्ड न दिया, यह भी कथाकार का कुत्सित भाव है कि आगे इस कुत्सित कामना के पूरा होने की सम्भावना बनी रहे.
                    यदि यह एक काल्पनिक कहानी है तो ऐसी चाह घोर निन्दनीय है, ईशनिन्दा है, उन्हें मानव के स्तर पर उतार लाना है. आगे जो हुआ वह और निन्दनीय और अविश्वसनीय है व देवी को साधारण विवश स्त्री के रूप में प्रस्तुत करता है. कहानी के रूप में यह कथाकार का यौनविकृत मानस है. वे उस निर्जन स्थान की कुटी में, जहाँ प्रद्युम्न ने उन्हें देखा, गुणाढ्य की पत्नी/ भोग्या की ही स्थिति में रहती होंगी, और उसने किस रूप में उन्हें पाने की कामना की थी और वश में किया था.
            कथा के अन्त में पुनः देवत्व सम्पन्न होने पर सीधे देवलोक चली गयीं. अब समर्थ होने पर भी कृतघ्न रहीं और अपना निजी अपकार/पतन करने वाले, दासी/भोग्या के रूप में बन्धक रखने वाले पापी का कुछ न करने वाली के रूप में दिखाया कथाकार ने, यदि यह सत्य घटना थी/सत्य का कुछ अंश भी था इसमें तो क्या देवी का स्वभाव और सामर्थ्य ऐसा हो सकता है.
                    पुरानी कथाओं/पुराणों/मिथकों में ऐसे प्रसङ्ग हैं कि भगवान भक्ति के वशीभूत होकर भक्त के यहाँ मानव रूप में रहे. अत्रि पत्नी अनसूया के यहाँ त्रिदेव, ब्रह्मा-विष्णु-महेश, शिशु होकर पालने में लेटे, उनका स्तनपान किया. शिव जी एक भक्त के यहाँ मानव रूप में उसके सेवक, उगना, के रूप में रहे पर तब भी वे भगवान थे, स्वतन्त्र थे, प्रेम/भक्ति से इस रूप में रहे, जब चाहते अपने पूर्व रूप में आ जाते किन्तु इस कथा में देवी होते हुए भी एक मानव की भोग्या बन कर, विवश होकर रहीं. उन्हें अपनी शक्तियों का भान न रहा, स्मृति लोप हो गया. कथाओं में लोगों ने भगवान को पुत्र रूप में (बलि की पुत्री, राजा दशरथ ) व पति रूप में चाहा. भगवान ने उनकी इच्छा पूरी की किन्तु उसी रूप/विवश स्थिति में नहीं, उनके अगले जन्म में, अगले युग में और अवतार लेकर.
इस कथा में ऐसी विवश और अतिसामान्य दासीवत स्त्री कि अपने उद्धार का तरीका उन्हें मालूम न था और उसके लिए भी वह दुष्ट ही समर्थ था. इस स्थिति में बन्धक करने, रखने के लिए उसे को दण्ड न दिया और न ही अपने उद्धारक का भला किया - सत्य हो या कथा, देवी का यह रूप हमें स्वीकार नहीं, अविश्वसनीय है, कथा है तो लेखक निन्दनीय है देवी का ऐसा चित्रण करने के लिए.
         इसे इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ और रोमाञ्चक कथा कहा है, पाठकों ने इसे पसन्द किया, स्टार कहानी है पर हमें कुफ़्र लगी.
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